Saturday, October 4, 2014

मंझिले

सालों की उम्मीदों को,
दिल की अरमानों को,
लेकर चला अपनी मंज्ञिलों को...

सामने वो खड़ी थी.....
मगर उसकी नज़र पराई थी,
आंखों में दुसरे की परछाईं थी,
एहसासों में कीसी की ख़ुशबु थी...

मुस्कुरा कर मैं ने कहा -
चलता हुँ मैं और
तु ख़याल रखना यहाँ...

सपने छुटे, उम्मीदें टूटे,
जब होश आया,
कहीं से कानों शब्द पड़े -
तु चला पाने अपनी मंज्ञिलों को,
तक़दीर हुँ मैं, जिसने
लिखी हैं तेरी मंज्ञिलों को...

ख़्वाईश और तक़दीर में
काफ़ी है अंतर है दोस्त...
तु ने सिर्फ़ अपनी ही सोची,
मैं ने उसमे औरों की भी सोची,
ये ही हैं नई मंज्ञिलें तेरी,
कर्म में ही अब तक़दीर हैं तेरी...

तेरा कर्म और मेरी लकीर,
दोनों से बुनी हैं तेरी तक़दीर,
अब बढ उस मंज्ञिल की ओर,
सामने हैं तेरा नया मुक़्क़दर,
भुल जा बीती पुरानी,
लिख ले अब नई कहानी...


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© Copyright 2012-14 Sandhya Jane

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